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3/12/11

चेतना और स्वप्न

पवन-गत रजनी में
हरी घास पर लेट कर
उस विराट अंतरिक्ष की गहराईयों में
मैंने जब अपनी चेतना को खोया है,
मैं भूल गया हूँ अपनी काया की परिधियों को;
और समय की परिधिओं को भेद कर
मैंने देखा है तारों को आपस में बात करते हुए;
..
..
और कभी कभी
हवा की फुसफुसाहट के बीच
मैंने सुने हैं वो स्वर मेरे अतीत से आते हुए|

 
आकाश के गहरे अन्धकार में मैंने देखा है
एक काली परछाई से धुंधले और अपूर्ण
 उन चेहरों को मेरी ओर मुस्कुराते हुए ;
और जब जब मैंने माँगा है उनका परिचय
एक रहस्यमयी हँसी के साथ,
और फिर आने के वादे के साथ
वो विलुप्त हो गए हैं|